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आजादी के लिए गांधीजी जरूरी……..
महात्मा गांधीजी एक नाम जो खदु हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोगो के जुबान पे आते ही एक बूढ़े कमज़ोर व्यक्ति की तस्वीर उभर आती है।
महात्मा ग़ांधी की जो तस्वीर आज के युवा देखते हैऔर उनको अपना आदर्श मानते है, उनको अपना गुज़रा हुवा कल समझते है और उनका ज़िक्र होते ही कहते है कि महात्मा ग़ांधी ने हमेंआजादी दिलाई। ये आज़ादी अगर भगत
सिंह या नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वारा मिली होती तो आज हिंदुस्तान पूरी दुनिया में शक्ति शाली होता।
खुद गाँधी जी ने भी कभी नहीं सोचा होगा की जिस देश के लिए, जिस देह के लोगों के लिए वो आजादी का सपना देख रहे हैं , वही देशवासी अंदर ही अंदर उनकी बुराई करते है और खुद एक हिंदुतानी ही उनकी जान का दुश्मन
बन जायेगा।
अब बात आती है कि हम गाँधी जयंति ही क्यों मानते हैं ? क्यों हम एक कमज़ोर और बूढ़े इंसान को याद करने का दिखावा करते हैं? क्यों ग़ांधी जयंति बस एक छुट्टी का दिन ही रह गया हमारे लिए?
हो सकता है कि कुछ हिंदुस्तानयों को मेरी बातें अच्छी न लगे, वो मेरे बातों को fever न करे, लेकिन आज भी
अगर हम एक फिल्म भी बनाते हैं तो उसमे भी हम ग़ांधी जी की तस्वीर को एक बूढ़े व्यक्ति के रूप में दिखाकर लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि गांधी जी के सभी सिधान्तो पर चलना अब old fashion हो गया है गांधीजी के
सिद्धान्त यानी एक गाल पे थप्पर पड़ जाए तो दूसरा गाल आगेकर देना और अगर यही बात हम आज के
हिंदुस्तानी के सामने रखें कि गांधीजी को मानते हो तो एक गाल पर मार खाने के बाद दूसरा गाल आगेकर
देना, तो सबसे पहले वही हिंदुस्तानी यह कहेगा कि अरे बेवक़ूफ़ हो क्या, भला मैं दूसरी बार मार क्यों खाऊ।
क्या सच में गांधीजी के सिद्धान्त हमें कमज़ोर बनाते हैं ? क्या सुभाष चन्र बोस और भगत जैसे क्रांति कारी के
लिए हमारे दिल में ज्यादा इज्ज़त है।
आखिर क्या है गांधीजी और उनके सिद्धांतों की ताकत, हम किस्से पूछें किस किताब में पढ़ें।
इन सभी बातों से दूर मेने तो यह सुना है कि दुनिया में सबसे ताकतवर और अच्छे इंसान को उनके दुश्मन सबसे
ज्यादा बदनाम करते हैं और इतना बदनाम करते हैं कि खदु उस इंसान के अपने लोग ही उसे बुरा समझने लगतें हैं।
गांधीजी की असली ताकत हमें वो लोग ही बता सकते हैं जो गांधीजी के साथ साथ आजादी की लड़ाई लड़ते रहे
और देश को आजाद करवाया।
उनकी बातों में उनके जिक्र में गांधीजी एक ऐसे leader और क्रांतिकारी थे जिनके नाम लेने से ही अंग्रेज कांप उठते
थे। गांधीजी ने किसी अंग्रेज को पत्थर नहीं मारा, कोई गोली नहीं चलाई, बस सभी के लाठी डांडों से मार खाते रहे।
सब कुछ सहते रहे इन्ही कामों को उन्होंने अहिँसा का नाम दिया। अलग-अलग आंदोलनों में सभी हिंदुस्तानीयों से यही कहा की कोई जितना भी लाठी मारे, डंडे मारे तुम्हे उनसे भिड़ना नही। उन्हें लाठी का जवाब पत्थर से नहीं देना, नहीं तो हमने जो शुरुआत की थी हम वही पहुंच जाएंगे।
अगर हम हिंदुस्तानियों ने इतिहास पढ़ा हो तो हमें याद करना चाहिए की गांधीजी का एक आंदोलन सिर्फ इसीलिए ख़तम हो गया क्योंकि गोरखपुर में लोगो ने अंग्रेजो के लाठियों का जवाब पथ्थर से दिया था, गोरखपुर के लोगो ने अंग्रेजो से मार खाना पसंद नही किया जो की गांधीजी के आंदोलन का मुख्य नियम था कि अगर कोई अंग्रेज हमें मारे तो हमें मार खाते रहना होगा जब तक कि उस अंग्रेज के दिल में रेहम नहीं आ जाता।
गांधीजी का मानना था कि अंग्रेज भी हमारी तरह इंसान है आखिर कब तक वो हमें मारते रहेंगे उन्हें भी तो शर्म आएगी, उन्हें भी तो एहसास होगा कि बस अब बहुत हुवा, अब रहने दो। बेचारे कब तक मार खाएंगे, कब तक सहेंगे और यही वजह भी यही रही कि गांधीजी के सभी आंदोलनों में अंग्रेज हिंदुस्तानियों को मारते मारते थक गए वो भी सोचने लगे कि कितने ढीट है ये लोग, आज़ादी इन्हें इतनी प्यारी है कि इसके लिए ये लोग रात दिन मार खाते है और मारते-मारते हमें शर्म आ जाती है।
एक दिन ऐसा भी आया कि अंग्रेज हिंदुस्तानियों के जज्बे को– उनके अपने देश के लिए प्रेम को देख देख कर थक गए ये जो उनकी आज़ादी के लिए था और अंग्रेज भी अब कहने यही कहने लगे थे। बस अब रहने दो, छोड़ दो, दे दो इन्हें जो चाहिए।
अब बात आती है कि क्या यही करना जरूरी था आज़ादी पाने के लिए? क्या हम लड़ नहीं सकते थे? हम तो संख्या में भी अंग्रेजो से कई अधिक थे। इस सवाल का जवाब एक महापुरुष के शब्दो में –” उस आजादी से क्या फायदा जिसको पाने के बाद हम और हमारे अपने आज़ादी की जीवन जीने के लिए ज़िंदा ही न रहे”।
में ये नहीं कहता की सुभाष चंद्र बोस का नारा गलत है, जिसमे उन्होंने लोगों से अपील की है कि जिसमे उन्होंने लोगों से अपील की थी कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा। सुभाष चंद्र बोस का साथ भी कई हिंदुस्तानियों ने दिया, जिन्होंने अंग्रेजो का मुह तोड़ जवाब दिया।
आज भी हम अपने देश को बचाने के लिए दूसरों से युद्ध करते है, दूसरो से मार नहीं खाते। लेकिन अगर यही दुश्मन हमारे घर में हो तो? इन्हें घर से निकालने के लिए और इन दुश्मनो की बातों में फसे हुए अपने लोगो को बचाने के लिए दुसरे विकल्प के तौर पर गांधीजी के सिद्धान्त ही है।
अब अगर हम ये सोचते है कि अगर कोई देश, कोई शहर और कोई गली आज़ादी के लिए गांधीजी के अहिंसा आंदोलन का सहारा लेगी जो की लड़ने का दूसरा विकल्प है मतलब लड़ने से उल्टा ही है, मतलब अहिंसा से है, तो क्या वो ठीक होगा?
अरे भाई! ऐसे लोग जो पढ़े -लिखे होकर भी अनपढ़ से भी ज्यादा गए गुजरे है जिसका best example कश्मीर के लोग है जो आज़ादी की लड़ाई लड़ना भी चाहते है और जिन्हें गांधीजी के सिद्धांत भी नहीं मालूम। गली- मुहल्लो से पथ्थर फैंक- फैंक कर आज़ादी पाना चाहते है। भला अब ऐसे मुर्ख लोग कहाँ होंगे इस दुनिया में जो दिन भर आज़ादी पाने के लिए पथ्थर फैंकते है और शाम होते होते कब्र में पहुँच जाते है। क्या ऐसे मुर्ख लोगों के बीच कोई पढ़ा-लिखा नहीं है जो गांधीजी की ताकत को पहचानता हो ।
अगर कश्मीर के लोगो को ही हम 1947 वाले हिंदुस्तानी समझे, और ये कल्पना करें कि गांधीजी उस वक्त हमारे साथ न होते, और कश्मीर में मौजूद ऐसे अलगाव वादी नेता ही उस वक्त के हिंदुस्तानियों के साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे होते। तो क्या उस वक्त भी बिलकुल या होता कि सुबह के वक्त ये लीडर हमारे सामने भाषण देते और गायब हो जाते और दिन भर हम हिंदुस्तानी अंग्रेजो को गलियों और मोहल्ले में पथ्थर फैंकते और आज़ादी मांगते और शाम होते होते 100-200 लोग या तो कब्र में जाते या लकड़ी के ऊपर जलने के लिए तैयार रहते। और अगले दिन फिर यही लीडर हमें अपने अपने मंच पर भाषण देते मिलते। अच्छा क्या आज़ादी मिल जाती हमें?
नहीं, बस यही होता रहता और हम हिंदुस्तानी मरते रहते बस मरते रहते, यही कारण था कि 200 साल में पहली बार एक ऐसे इंसान ने जनम लिया जो मुर्ख नहीं था और न ही अपने लोगो को मुर्ख बनने दिया। अपने लोगो को भी बचाया और आज़ादी भी दिलायी जिस आज़ादी का इंतज़ार भारत के लोग 200 से कर रहे थे।
अब फैसला हमारे ऊपर है कि हम मुर्ख बनना चाहेंगे कि गांधीजी की असली ताकत पहचान लेंगे।
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